सारा बदन है ख़ून से क्यूँ तर उसे दिखा
सारा बदन है ख़ून से क्यूँ तर उसे दिखा
शह-रग कटी है जिस से वो नश्तर उसे दिखा
आएगी कैसे नींद दिखा वो हुनर उसे
फिर इस के बाद ख़्वाब को छू कर उसे दिखा
आँखों से अपने अश्क के तारों को तोड़ कर
सूखी नदी के दर्द का मंज़र उसे दिखा
दुख-सुख जो धूप छाँव का इक खेल है तो फिर
सूरज के साथ बादलों के पर उसे दिखा
आए जो कोई शीशे का पैकर लिए हुए
तो अपने दश्त-ए-शौक़ में पत्थर उसे दिखा
पूछे जो ज़िंदगी की हक़ीक़त कोई 'जमाल'
तो चुटकियों में रेत उड़ा कर उसे दिखा
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