हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं
हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं
और तर्ज़-ए-कुहन को बदलते भी हैं
जादा-ए-आम पर भी है अपनी नज़र
जादा-ए-आम से बच के चलते भी हैं
राहिबाना क़नाअत के ख़ूगर सही
वालिहाना कभी हम मचलते भी हैं
दामन-ए-नश्शा देते नहीं हात से
रिंद गिरते भी हैं और सँभलते भी हैं
यूँ तो इख़फ़ा-ए-ग़म का नमूना हैं हम
दूसरों के लिए हात मलते भी हैं
कुछ ये है मस्लहत-केश हम भी नहीं
कुछ ये अहल-ए-रिया हम से जलते भी हैं
नाज़ क्या इस क़दर आरज़ी हुस्न पर
शहरयारों के सिक्के बदलते भी हैं
(961) Peoples Rate This