हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं

हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं

और तर्ज़-ए-कुहन को बदलते भी हैं

जादा-ए-आम पर भी है अपनी नज़र

जादा-ए-आम से बच के चलते भी हैं

राहिबाना क़नाअत के ख़ूगर सही

वालिहाना कभी हम मचलते भी हैं

दामन-ए-नश्शा देते नहीं हात से

रिंद गिरते भी हैं और सँभलते भी हैं

यूँ तो इख़फ़ा-ए-ग़म का नमूना हैं हम

दूसरों के लिए हात मलते भी हैं

कुछ ये है मस्लहत-केश हम भी नहीं

कुछ ये अहल-ए-रिया हम से जलते भी हैं

नाज़ क्या इस क़दर आरज़ी हुस्न पर

शहरयारों के सिक्के बदलते भी हैं

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