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तुम्हारी जुस्तुजू की है वहाँ तक - यूनुस ग़ाज़ी कविता - Darsaal

तुम्हारी जुस्तुजू की है वहाँ तक

तुम्हारी जुस्तुजू की है वहाँ तक

नहीं पहुँचे जहाँ वहम-ओ-गुमाँ तक

जो रिश्ते थे हमारे दरमियाँ तक

वो ले आए हमें अब इम्तिहाँ तक

मोहब्बत में मक़ाम आया है कैसा

अयाँ होने को है राज़-ए-निहाँ तक

नहीं मिलता तिरा सानी कहीं भी

नज़र पहुँची है अपनी कहकशाँ तक

पलट कर जब कभी देखा तो समझा

कहाँ से आ गए हैं हम कहाँ तक

सँभल कर बात कीजे शैख़-जी से

रसाई उन की है पीर-ए-मुग़ाँ तक

टटोला है उन्हों ने दिल को अक्सर

मगर पहुँचे नहीं दर्द-ए-निहाँ तक

नज़र आता है बस जल्वा उसी का

पहुँचती है नज़र अपनी जहाँ तक

ये फ़स्ल-ए-गुल ये बुलबुल की असीरी

हैं फ़रियादी क़फ़स की तितलियाँ तक

यक़ीनन क़ाबिल-ए-अज़मत है 'ग़ाज़ी'

न उफ़ की सुन के उस ने गालियाँ तक

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