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क़ैद-ए-उल्फ़त का मज़ा ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर में है - यूनुस ग़ाज़ी कविता - Darsaal

क़ैद-ए-उल्फ़त का मज़ा ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर में है

क़ैद-ए-उल्फ़त का मज़ा ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर में है

बस यही रंग मिरे ख़्वाब की ता'बीर में है

मीठी मीठी सी कसक उस के भी दिल में होगी

हल्की हल्की सी खनक पाँव की ज़ंजीर में है

उस को तहक़ीर की नज़रों से न देखो यारो

रंग किरदार का पिन्हाँ मिरी तस्वीर में है

कू-ब-कू एक तजस्सुस लिए फिरता है मुझे

अब ये दरयूज़ा-गरी ही मिरी तक़दीर में है

ख़ून रो देता अगर तुझ पे अयाँ हो जाता

तू ने समझा ही क्या जो कुछ मिरी तहरीर में है

तुम भी 'ग़ाज़ी' की तरह दिल के एवज़ जाँ दे दो

इश्क़-ए-कामिल का मज़ा बस इसी तदबीर में है

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