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चुप रहूँ कैसे मैं बर्बाद-ए-जहाँ होने तक - यूनुस ग़ाज़ी कविता - Darsaal

चुप रहूँ कैसे मैं बर्बाद-ए-जहाँ होने तक

चुप रहूँ कैसे मैं बर्बाद-ए-जहाँ होने तक

राज़ को राज़ ही रखना है बैय्याँ होने तक

क्या ख़बर थी तिरी महफ़िल में ये हालत होगी

तू उठा देगा मुझे दर्द अयाँ होने तक

ख़ुश-नसीबी ये मिरी है कि वो घर आए हैं

शम्अ' तू साथ निभा वक़्त-ए-अज़ाँ होने तक

कोई ख़ामोश सदा दूर बुलाती है मुझे

काश मैं ज़िंदा रहूँ दर्द बयाँ होने तक

एक शो'ला है मोहब्बत उसे शबनम न कहो

ज़िंदा रहती है ये बद-बख़्त धुआँ होने तक

तुम भी 'ग़ाज़ी' कभी फ़ुर्सत में ये सोचो तो सही

क्यूँ तड़पते हो हर इक शब के जवाँ होने तक

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