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ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं - यज़दानी जालंधरी कविता - Darsaal

ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं

ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं

मैं वो इंसाँ हूँ जिसे नाम-ओ-नसब याद नहीं

मैं ख़यालों के परी-ख़ानों में लहराया हूँ

मुझ को बेचारगी-ए-महफ़िल-ए-शब याद नहीं

ख़्वाहिशें रस्ता दिखा देती हैं वर्ना यारो

दिल वो ज़र्रा है जिसे शहर-ए-तलब याद नहीं

गर्द सी बाक़ी है अब ज़ेहन के आईने पर

कैसे उजड़ा है मिरा शहर-ए-तरब याद नहीं

तब्सिरा आप के अंदाज़-ए-करम पर क्या हो

मुझ को ख़ुद अपनी तबाही का सबब याद नहीं

ख़ुद फ़रामोशी ने तकलीफ़ की शिद्दत कम की

मुझ को कब याद थे ये ज़ुल्म जो अब याद नहीं

मुझ से पूछा जो गया जुर्म मिरा महशर में

दावर-ए-हश्र से कह दूँगा कि अब याद नहीं

इज्ज़ के साथ चले आए हैं हम 'यज़्दानी'

कोई और उन को मना लेने का ढब याद नहीं

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