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सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम - यज़दानी जालंधरी कविता - Darsaal

सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम

सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम

तारीकियों में फिर भी उतारे गए हैं हम

रास आ सकी न हम को हवा तेरे शहर की

यूँ तो क़दम क़दम पे सँवारे गए हैं हम

कुछ क़हक़हों के अब्र-ए-रवाँ ने दिया निखार

कुछ ग़म की धूप से भी निखारे गए हैं हम

साहिल से राब्ता हैं नहीं टूटता कभी

कैसे समुंदरों में उतारे गए हैं हम

टूटा न राह-ए-शौक़ में अफ़्सून-ए-तीरगी

ले कर जिलौ में चाँद सितारे गए हैं हम

जाना मुहाल था तिरी महफ़िल को छोड़ कर

पा कर तिरी नज़र के इशारे गए हैं हम

इस तीरा ख़ाक-दाँ में कोई पूछता नहीं

कहने को आसमाँ से उतारे गए हैं हम

सौ बार बार-ए-ग़म ने परेशाँ किया हमें

सौ बार मिस्ल-ए-ज़ुल्फ़ सँवारे गए हैं हम

इस सिलसिले में मौत तो बदनाम है यूँही

इस ज़िंदगी के हाथों ही मारे गए हैं हम

गिर्दाब-ए-ग़म में डूब के उभरे हैं बारहा

किस ने कहा किनारे किनारे गए हैं हम

'यज़्दानी'-ए-हजीं हमें कुछ भी ख़बर नहीं

उस आस्ताँ पे किस के सहारे गए हैं हम

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