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जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह - यज़दानी जालंधरी कविता - Darsaal

जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह

जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह

दिल की ता'मीर कि कल तक थी शिवालों की तरह

अक़्ल-ए-वारफ़्ता के बे-नूर बयाबानों में

हम भटकते रहे आवारा ख़यालों की तरह

हम कि इस बज़्म में हैं साया-ए-ग़म की सूरत

कौन देखेगा हमें ज़ोहरा-जमालों की तरह

हाथ बढ़ता नहीं रिंदों का हमारी जानिब

हम ख़राबात में हैं ख़ाली प्यालों की तरह

जब कोई ख़ार-ए-सितम दिल में उतर आता है

फूट कर रोता है दिल पाँव के छालों की तरह

जब भी पढ़ता हूँ किताब-ए-ग़म-ए-हस्ती ऐ दिल

तज़्किरा उन का भी मिलता है हवालों की तरह

सोज़-ओ-एहसास की तस्वीर है क़ल्ब-ए-शाएर

नग़्मे तख़्लीक़ हुआ करते हैं नालों की तरह

अरसा-ए-दहर में की हम ने बसर 'यज़्दानी'

ज़ुल्मत-ए-शब की तरह दिन के उजालों की तरह

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