जादा-ए-ज़ीस्त पे बरपा है तमाशा कैसा
जादा-ए-ज़ीस्त पे बरपा है तमाशा कैसा
दोस्त बिछड़ा है हर इक गाम पे कैसा कैसा
दिल का आतिश-कदा वीरान पड़ा था कब से
आँख से बहने लगा आग का दरिया कैसा
उस पे तो फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ मार चुकी है शब-ख़ूँ
मौसम-ए-गुल के गुज़र जाने का खटका कैसा
चाँद से चेहरे नज़र आने लगे हैं कितने
खुल गया मेरी निगाहों पे दरीचा कैसा
जिस में इक अश्क न हो आँख कहाँ है वो आँख
बूँद पानी की न हो जिस में वो दरिया कैसा
बे-तहाशा जो बढ़ी जाती है सू-ए-गिर्दाब
नाव ने देख लिया उस में किनारा कैसा
देख महफ़िल में हर इक आँख है नम 'यज़्दानी'
तू ने ये छेड़ दिया आज फ़साना कैसा
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