सहने को तो सह जाएँ ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ तक
सहने को तो सह जाएँ ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ तक
ऐ ख़ालिक़-ए-हर-दर्द मगर फिर भी कहाँ तक
पहुँचे न कहीं दीदा-ए-ख़ूँ-नाबा-फ़शाँ तक
वो हर्फ़-ए-शिकायत नहीं आया जो ज़बाँ तक
ये मेरी निगाहों के बनाए हुए मंज़र
कम्बख़्त वहीं तक हैं नज़र जाए जहाँ तक
इक रस्म-ए-वफ़ा थी वो ज़माने ने उठा दी
इक ज़हमत-ए-बे-कार थी उठती भी कहाँ तक
तुम मो'तमिद-ए-राज़ थे किस तरह से पहुँची
हैरत है मिरी बात ज़माने की ज़बाँ तक
छूटे जो क़फ़स से तो वही क़ैद-ए-चमन थी
आज़ाद यहाँ तक थे गिरफ़्तार यहाँ तक
तस्वीर-ए-रुख़-ए-यार खिंची जाती है 'यावर'
मिलती है फ़रेब-ए-ग़म-ए-दौराँ से कहाँ तक
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