कुछ लोग जो नख़वत से मुझे घूर रहे हैं
कुछ लोग जो नख़वत से मुझे घूर रहे हैं
माहौल से शायद ये बहुत दूर रहे हैं
क्या कहिए कि क्या हो गया इस शहर का आलम
जिस शहर में उल्फ़त के भी दस्तूर रहे हैं
मजबूर किसे कहते हैं ये कौन बताए
पूछे कोई उन से कि जो मजबूर रहे हैं
कुछ लोग सर-ए-दार रहे हों तो रहे हों
हम हैं कि बहर-तौर सर-ए-तूर रहे हैं
हँसते हुए चेहरों पे न जा सीनों में उन के
हालात के टकराव से नासूर रहे हैं
ऐ शैख़ ग़नीमत है अगर हम को समझ लो
हम मंसब-ए-तस्दीक़ पे मामूर रहे हैं
इक तुम कि ख़ुदाई के भी दावे रहे तुम को
इक हम कि इस इक़रार से मअज़ूर रहे हैं
सुक्कान-ए-हरम क्या हैं ये मुझ से कोई पूछे
अल्लाह के घर में भी ये मग़रूर रहे हैं
एहसान बड़ा बोझ है इस ख़ौफ़ से 'यावर'
दीवार के साए से भी हम दूर रहे हैं
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