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अभी गुज़रे दिनों की कुछ सदाएँ शोर करती हैं - यासमीन हबीब कविता - Darsaal

अभी गुज़रे दिनों की कुछ सदाएँ शोर करती हैं

अभी गुज़रे दिनों की कुछ सदाएँ शोर करती हैं

दरीचे बंद रहने दो, हवाएँ शोर करती हैं

यही तो फ़िक्र के जलते परों पे ताज़ियाना है

कि हर तारीक कमरे में दुआएँ शोर करती हैं

कहा ना था हिसार-ए-इस्म-ए-आज़म खींचने वाले

यहाँ आसेब रहते हैं बलाएँ शोर करती हैं

हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने का

दरिंदे, बिजलियाँ, काली घटाएँ शोर करती हैं

अभी गर्द-ए-सफ़र के गिर्ये की है गूँज कानों में

अभी क्यूँ मुंतज़िर ख़ाली सराएँ शोर करती हैं

हमें सैराब रक्खा है ख़ुदा का शुक्र है उस ने

जहाँ बंजर ज़मीनें हों अनाएँ शोर करती हैं

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