हक़ीक़तों से मफ़र चाही थी 'यशब' मैं ने
पर अस्ल अस्ल रहा और ख़्वाब ख़्वाब रहा
Faiz Ahmad Faiz
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वस्ल भी हिज्र था विसाल न था
पढ़ चुके हैं निसाब-ए-तंहाई
समझ सका न उसे मैं क़ुसूर मेरा है
लबों से आश्नाई दे रहा है
दर्द की लहर थी गुज़र भी गई
ऐसा भी नहीं दर्द ने वहशत नहीं की है
कमाल-ए-शौक़-ए-सफ़र भी उधर ही जाता है
चाह थी मेहर थी मोहब्बत थी
तअल्लुक़ उस से अगरचे मिरा ख़राब रहा
वो जो एक चेहरा दमक रहा है जमाल से