ज़ेहन का कुछ मुंतशिर तो हाल का ख़स्ता रहा

ज़ेहन का कुछ मुंतशिर तो हाल का ख़स्ता रहा

कितना मेरी ज़ात से वो शख़्स वाबस्ता रहा

सुब्ह-ए-काज़िब रौशनी के जाल में आने लगी

सीम-गूँ सूरज उजाले पर कमर-बस्ता रहा

देखने में कुछ हूँ मैं महसूस करने में हूँ कुछ

चश्म-ए-बीना पर मिरा ये राज़ सर-बस्ता रहा

अपने ज़िंदाँ से निकलना अपनी ताक़त में नहीं

हर बशर अपने लिए ज़ंजीर पा-बस्ता रहा

पुर्सिश-ए-ग़म में न मुझ से ही महज़ उजलत हुई

उस की आँखों का छलक पड़ना भी बरजस्ता रहा

अपने अंदर की ख़लिश का कर लिया मैं ने इलाज

मेरे दिल में दूसरों का दर्द पैवस्ता रहा

या मसाइल से तक़ाबुल ज़िंदगी से या फ़रार

बच निकलने का वहाँ से एक ही रस्ता रहा

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