मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
सहर तो हो न सकी और फिर से शाम हुई
खुला जो मुझ पे सितम-गाह-ए-वक़्त का मंज़र
तो मुझ पे ऐश ओ तरब जैसी शय हराम हुई
मिरे वजूद का सहरा जहाँ में फैल गया
मिरे जुनूँ की नहूसत ज़मीं के नाम हुई
अभी गिरी मिरी दीवार-ए-जिस्म और अभी
बिसात-ए-दीदा-ओ-दिल सैर-गाह-ए-आम हुई
तू ला-मकाँ में रहे और मैं मकाँ में असीर
ये क्या कि मुझ पे इताअत तिरी हराम हुई
(885) Peoples Rate This