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तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया - याक़ूब उस्मानी कविता - Darsaal

तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया

तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया

साहिल को मौज मौज को साहिल बना गया

मुँह तकते तकते थक गईं हिरमाँ-नसीबियाँ

हर इंक़लाब-ए-शौक़ की हिम्मत बढ़ा गया

ज़ौक़-ए-नज़र की जुरअत बेबाक अल-अमाँ

रंग-ए-हयात बन के फ़ज़ाओं पे छा गया

थर्रा के शम-ए-अंजुमन-ए-ऐश बुझ गई

नैरंग-ए-नूर-ए-सुब्ह-ओ-मंज़र दिखा गया

इज्ज़-ए-रह-ए-नियाज़ के क़ुर्बान जाइए

नक़्श-ए-क़दम को नक़्श-ए-तमन्ना बना गया

इतना करम भी जब्र-ए-मोहब्बत का कम नहीं

घुट घुट के मरने वालों को जीना सिखा गया

शो'ले से क्यूँ लपकते हैं गुलशन से बार बार

'याक़ूब' क्या बहार का मौसम फिर आ गया

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