शौक़ की कम-निगही भी है गवारा मुझ को
शौक़ की कम-निगही भी है गवारा मुझ को
ग़म तो ग़म आज ख़ुशी भी है गवारा मुझ को
जुस्तुजू साथ है शम-ए-रह-ए-मंज़िल बन कर
अपनी बे-राह-रवी भी है गवारा मुझ को
लज़्ज़त-ए-ज़ीस्त ब-हर-तौर सभी को है अज़ीज़
ज़हर-ए-मीना-ए-ख़ुदी भी है गवारा मुझ को
सोज़न-ए-रहम-ओ-करम करती है क्यूँ सई-ए-रफ़ू
चाक-दामान-ए-तही भी है गवारा मुझ को
आप लिल्लाह न फ़रमाएँ ज़ियादा ज़हमत
अब तवज्जोह की कमी भी है गवारा मुझ को
सिर्फ़ तर-दामनी-ए-दिल ही पे इसरार नहीं
चश्म-ए-पुर-नम की कमी भी है गवारा मुझ को
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना से हूँ बद-ज़न 'याक़ूब'
ज़ब्त की कम-सुख़नी भी है गवारा मुझ को
(868) Peoples Rate This