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हल ही न हो जिस का वो मुअम्मा तो नहीं है - याक़ूब उस्मानी कविता - Darsaal

हल ही न हो जिस का वो मुअम्मा तो नहीं है

हल ही न हो जिस का वो मुअम्मा तो नहीं है

मक्तूब-ए-अज़ल हर्फ़-ए-तमन्ना तो नहीं है

दिल ही की ख़ुदाई है यहाँ आज भी ऐ दोस्त

पाबंद-ए-नज़र कैफ़ की दुनिया तो नहीं है

बे-बहरा-ए-इर्फ़ान-ए-मोहब्बत है अज़ल से

सोचा है तुझे अक़्ल ने देखा तो नहीं है

अंदोह ब-दामाँ न हो ख़ुद मौज-ए-तरन्नुम

आवाज़ का हर शो'बदा नग़्मा तो नहीं है

हर राह नज़र आने लगे मुझ को रह-ए-रास्त

बे-राह-रवी तेरा ये मंशा तो नहीं है

ग़म क्या अगर आज़ाद-ए-मुसलसल है मिरी ज़ीस्त

मिन्नत-कश-ए-एजाज़-ए-मसीहा तो नहीं है

'याक़ूब' सुनाना है मुझे दिल की ज़बाँ में

अफ़्साने का पहलू कोई तिश्ना तो नहीं है

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