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रू-ब-रू बुत के दुआ की भूल हो जाए तो फिर - याक़ूब तसव्वुर कविता - Darsaal

रू-ब-रू बुत के दुआ की भूल हो जाए तो फिर

रू-ब-रू बुत के दुआ की भूल हो जाए तो फिर

और फिर वो ही दुआ मक़्बूल हो जाए तो फिर

मैं बढ़ाऊँ हाथ जिस काँटे की जानिब शौक़ से

हाथ में आ कर वो काँटा फूल हो जाए तो फिर

बादबानों पर हवा हो मेहरबाँ और दफ़अ'तन

टुकड़े टुकड़े नाव का मस्तूल हो जाए तो फिर

नफ़रतें बे-ज़ारियाँ बुग़्ज़-ओ-तअ'स्सुब दुश्मनी

ज़िंदगी का बस यही मा'मूल हो जाए तो फिर

क़ातिलों को कर दिया जाए बरी इल्ज़ाम से

वाजिब-ए-ता'ज़ीर ख़ुद मक़्तूल हो जाए तो फिर

लम्हा लम्हा मंज़िलें होती चली जाएँ बईद

और क़िस्मत रास्ते की धूल हो जाए तो फिर

हाल-ए-दिल अपना बयाँ करने की ख़्वाहिश है मगर

कुछ तवज्जोह आप की मबज़ूल हो जाए तो फिर

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