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हर एक गाम पे इक बुत बनाना चाहा है - याक़ूब तसव्वुर कविता - Darsaal

हर एक गाम पे इक बुत बनाना चाहा है

हर एक गाम पे इक बुत बनाना चाहा है

जिसे भी चाहा बहुत काफ़िराना चाहा है

हज़ार क़िस्म के इल्ज़ाम और ख़ामोशी

तअ'ल्लुक़ात को यूँ भी निभाना चाहा है

गिराए जाने लगे हैं दरख़्त हर जानिब

कि मैं ने शाख़ पे इक आशियाना चाहा है

है क्यूँ अदावत-ए-अग़्यार ही का ज़िक्र यहाँ

चमन तो अहल-ए-चमन ने जलाना चाहा है

हिसार-ए-नफ़रत-ए-दौर-ए-जदीद में दिल ने

मोहब्बतों का पुराना ज़माना चाहा है

ख़ुदाया दश्त-नवर्दी का शौक़ है किस को

मुसाफ़िरों ने फ़क़त आब-ओ-दाना चाहा है

चमन में फूल 'तसव्वुर' खिलें हर इक जानिब

इसी सबब से तो सहरा बसाना चाहा है

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