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न चारागर न मसीहा न राहबर था मैं - याक़ूब आरिफ़ कविता - Darsaal

न चारागर न मसीहा न राहबर था मैं

न चारागर न मसीहा न राहबर था मैं

नज़र में फिर भी ज़माने की मो'तबर था मैं

अना पे हर्फ़ न आ जाए हक़-परस्तों की

उठाए अपने ही नेज़े पे अपना सर था मैं

सवाल ये नहीं किस ने किया था क़त्ल मुझे

सवाल ये है कि क्यूँ ख़ुद से बे-ख़बर था मैं

जो सुब्ह-ए-नौ का असीरी में दे रहा था पयाम

वो इंक़िलाब-ए-ज़माना का नामा-बर था मैं

सुकून-ए-दिल भी मिला आबलों की लज़्ज़त भी

तुम्हारे साथ सफ़र में जो हम-सफ़र था मैं

हुए थे पस्त हवाओं के हौसले 'आरिफ़'

जब अपने खोले फ़ज़ाओं में बाल-ओ-पर था मैं

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