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नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं - याक़ूब आमिर कविता - Darsaal

नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं

नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं

हँसता हूँ कि क्या सोच के करता था वफ़ा मैं

तू कौन है ऐ ज़ेहन की दस्तक ये बता दे

हर बार की आवाज़ पे देता हूँ सदा मैं

याद आता है बचपन में भी उस्ताद ने मेरे

जिस राह से रोका था वही राह चला मैं

जी ख़ुश हुआ देखे से कि आज़ाद फ़ज़ा है

बस्ती से गुज़रता हुआ सहरा में रुका मैं

मुद्दत हुई देखे हुए वो शहर-ए-निगाराँ

ऐ दिल कहीं भूला तो नहीं तेरी अदा मैं

मंज़िल की तलब में न था आसान गुज़रना

पत्थर थे बहुत राह में गिर गिर के उठा मैं

क्या दिन हैं कि अब मौत की ख़्वाहिश है बराबर

क्या दिन थे कि जब जीने की करता था दुआ मैं

सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'

दुनिया है ख़फ़ा मुझ से कि दुनिया से ख़फ़ा मैं

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