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चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़ - याक़ूब आमिर कविता - Darsaal

चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़

चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़

और फिर तन्हाई की हम-साएगी चारों तरफ़

घर में सारी रात बे-आवाज़ हंगामा न पूछ

मैं अकेला नींद ग़ाएब बरहमी चारों तरफ़

देखने निकला हूँ अपना शहर जंगल की तरह

दूर तक फैला हुआ है आदमी चारों तरफ़

मेरे दरवाज़े पे अब तख़्ती है मेरे नाम की

अब न भटकेगी मिरी आवारगी चारों तरफ़

मेरे घर में ही रहा ता-उम्र मेरा वाक़िआ

अपनी अपनी वर्ना अर्ज़-ए-वाक़ई चारों तरफ़

चाँदनी रातों की बस्ती में हूँ मैं सहमा हुआ

ख़ौफ़ से लिपटी हुई है रौशनी चारों तरफ़

है कोई चेहरा शनासा ढूँडता हूँ भीड़ में

इतनी रौनक़ में भी इक बे-रौनक़ी चारों तरफ़

पहले मेरी बात हँस कर टाल भी देते थे वो

लेकिन अब तस्दीक़ मेरी बात की चारों तरफ़

बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी 'आमिर' देर तक

तेरे जाने से रही इक ख़ामुशी चारों तरफ़

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