क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअत्तर हो गया
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उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते
सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
पड़ गई दिल में तिरे तशरीफ़ फ़रमाने में धूम
मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
इस अश्क ओ आह में सौदा बिगड़ न जाए कहीं
ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे
नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा