ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने
ज़ाहिद तुझे क़सम है जो तू हो तो क्या करे
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सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा
मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
दोस्ती बद बला है इस में ख़ुदा
उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था