चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर
दे ले साक़ी हम को मय ये अब्र-ए-बाराँ फिर कहाँ
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ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे
नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा
यार कब दिल की जराहत पे नज़र करता है
उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है
हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने