अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
निरा बुरा नहीं ये शग़्ल कुछ भला भी है
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यार कब दिल की जराहत पे नज़र करता है
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
दोस्ती बद बला है इस में ख़ुदा
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे