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ख़ुदा गवाह - यहया अमजद कविता - Darsaal

ख़ुदा गवाह

ख़ुदा गवाह दिल इक लम्हा भी नहीं ग़ाफ़िल

तुम्हारी याद भी बाक़ी है दुख भी बाक़ी है

वो शाम-ए-ग़म भी उसी तरह दिल पे क़ाएम है

वो रोज़-ए-सख़्त भी सीने में दर्द बन कर है

जब एक हमला-ए-दिल तुम पे ज़ुल्म करता था

अज़ीम शहर के मरकज़ में इक उदास सा घर

इलाज से महरूम

तुम्हारे दुख में तड़पने को देख कर चुप था

तो सारे शाही महल्लात शोर-ए-ऐश में थे

मुझे तो फ़ल्सफ़ा-ए-सब्र भी गवारा है

(अगरचे अस्ल में ये क़ातिलों की मंतिक़ है)

मगर ये फ़ल्सफ़ा उस दिल को कौन समझाए

जो तेरी याद के ग़म को ख़ुदा समझता है

अगर गए हुए इक लम्हा मुड़ के आ सकते

फ़ना के ब'अद दोबारा हयात अगर होती

तो मैं ज़रूर लिपट कर तुम्हारे सीने से

तमाम क़िस्सा-ए-ग़म आँसुओं में बरसाता

मगर मुझे तो ख़बर है कि ये नहीं मुमकिन

इसी लिए मिरे दिल में अलम भी बाक़ी है

तिरी जिहाद-ए-मुसलसल सी ज़िंदगी की किताब

मिरी हयात के इक इक वरक़ पे लिक्खी है

जो तू ने राह में छोड़ा था परचम-ए-तग-ओ-दौ

हरीफ़ कुछ भी कहें आज मेरे हाथ में है

क़रार-ए-ख़ातिर-ए-महज़ूँ अगर कोई शय है

तो उसी का ख़याल!

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