शोहरत और इज़्ज़त के ज़ीने पर चढ़ते फ़नकार
का साया ज़िल्लत के पाताल में उतरा जाता है
रोते शहरों देहातों को छोड़ के
चोरों की मंडली से मिल कर
इतराते बल खाते हो
कभी ज़रा तारीख़ का आईना भी देखो
देखो तो क्या शरमाते हो
Wasi Shah
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Rahat Indori
Gulzar
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Anwar Masood
Ahmad Faraz
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बाग़ों में आएगी कब बहार
जिस्म और साए
शब के सब असरार तुम्हारे
ख़ुदा गवाह
बहस तो अपनी ही नहीं