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ठोकरें खिलवाईं क्या-क्या पा-ए-बे-ज़ंजीर ने - यगाना चंगेज़ी कविता - Darsaal

ठोकरें खिलवाईं क्या-क्या पा-ए-बे-ज़ंजीर ने

ठोकरें खिलवाईं क्या-क्या पा-ए-बे-ज़ंजीर ने

गर्दिश-ए-तक़दीर ने जौलानी-ए-तदबीर ने

आलम-ए-असबाब से क्या फ़ैज़-ए-नाकामी मिला

राह पर ला कर मुझे भटका दिया तक़दीर ने

कारवाँ कितने बगूले बन के ग़ाएब हो गए

ख़ाक से यकसाँ किया जौलाँ-ए-गह-ए-तदबीर ने

बाज़ आए ज़िंदगी के ख़्वाब-ए-रंगा-रंग से

दस्त ओ पा गुम कर दिए अंदेशा-ए-ताबीर ने

दाद-ख़्वाही को उठा है ज़र्रा-ए-पामाल तक

सोते फ़ित्नों को जगाया हश्र-ए-आलम-गीर ने

मातम-ए-हसरत किया पहले गरेबाँ फाड़ कर

फिर दुआ दी दुश्मनों को दस्त-ए-बे-शमशीर ने

जान दे कर एक हुक्म-ए-आख़िरी माना तो क्या

लिख दिया जब सरकशों में कातिब-ए-तक़दीर ने

वाह क्या कहना मुजस्सम कर दिया मौहूम को

नक़्श-बंदान-ए-अज़ल की शोख़ी-ए-तहरीर ने

जम गई गर्द-ए-फ़ना ऐसी कि छुटने की नहीं

किस ग़ज़ब का रंग पकड़ा 'यास' की तस्वीर ने

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