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साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का - यगाना चंगेज़ी कविता - Darsaal

साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का

साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का

क्या मर्तबा बुलंद हो अपने मज़ार का

वो दश्त-ए-हौलनाक वो हुब्ब-ए-वतन का जोश

फिर फिर के देखना वो किसी बे-दयार का

लौ दे रही है शाम से आज आह-ए-आतिशीं

शोला भड़क रहा है दिल-ए-दाग़दार का

तस्वीर-ए-नज़अ देखना चाहो तो देख लो

रह रह के झिलमिलाना चराग़-ए-मज़ार का

पर तौलने लगे फिर असीरान-ए-बद-नसीब

शायद क़रीब आ गया मौसम बहार का

मू-ए-सफ़ेद काँपते हाथ और जाम-ए-मय

दिखला रहे हैं रंग ख़िज़ाँ में बहार का

अंगड़ाइयों के साथ कहीं दम निकल न जाए

आसाँ नहीं है रंज उठाना ख़ुमार का

साक़ी गिरा न दीजियो ये जाम-ए-आख़िरी

दिल टूट जाएगा किसी उम्मीद-वार का

मस्तों की रूहें भटकेंगी अच्छा नहीं है अब

घिर-घिर के आना क़ब्रों पर अब्र-ए-बहार का

देखो तो अपने वहशियों की जामा-ज़ेबियाँ

अल्लाह रे हुस्न पैरहन-ए-तार-तार का

जुर्म-ए-गुज़िश्ता अफ़्व कुन ओ माजरा मपुर्स

मारा हुआ हूँ इस दिल-ए-बे-इख़्तियार का

दुनिया से 'यास' जाने को जी चाहता नहीं

अल्लाह रे हुस्न गुलशन-ए-ना-पाएदार का

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