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ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया - यगाना चंगेज़ी कविता - Darsaal

ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया

ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया

ख़ुदा बने थे 'यगाना' मगर बना न गया

पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया

इशारा पाते ही अंगड़ाई ली रहा न गया

हँसी में वादा-ए-फ़र्दा को टालने वालो

लो देख लो वही कल आज बन के आ न गया

गुनाह-ए-ज़िंदा-दिली कहिए या दिल-आज़ारी

किसी पे हँस लिए इतना कि फिर हँसा न गया

पुकारता रहा किस किस को डूबने वाला

ख़ुदा थे इतने मगर कोई आड़े आ न गया

समझते क्या थे मगर सुनते थे तराना-ए-दर्द

समझ में आने लगा जब तो फिर सुना न गया

करूँ तो किस से करूँ दर्द-ए-ना-रसा का गिला

कि मुझ को ले के दिल-ए-दोस्त में समा न गया

बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचाना

ख़ुदा के घर तो कोई बंदा-ए-ख़ुदा न गया

कृष्ण का हूँ पुजारी अली का बंदा हूँ

'यगाना' शान-ए-ख़ुदा देख कर रहा न गया

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