दुनिया का चलन तर्क किया भी नहीं जाता
दुनिया का चलन तर्क किया भी नहीं जाता
इस जादा-ए-बातिल से फिरा भी नहीं जाता
ज़िंदान-ए-मुसीबत से कोई निकले तो क्यूँकर
रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुआ भी नहीं जाता
दिल बाद-ए-फ़ना भी है गिराँ-बार-ए-अमानत
दुनिया से सुबुक-दोश उठा भी नहीं जाता
क्यूँ आने लगे शाहिद-ए-इस्मत सर-ए-बाज़ार
क्या ख़ाक के पर्दे में छुपा भी नहीं जाता
इक मअ'नी-ए-बे-लफ़्ज़ है अंदेशा-ए-फ़र्दा
जैसे ख़त-ए-क़िस्मत कि पढ़ा भी नहीं जाता
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