चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का
चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का
दिल है बग़ल में या कोई दफ़्तर गुनाह का
अब क्या लगेगा दिल चमन-ए-रोज़गार में
मारा हुआ है दीदा-ए-इबरत-निगाह का
दुनिया मक़ाम-ए-हू नज़र आएगी ना-गहाँ
टूटेगा जब तिलिस्म फ़रेब-ए-निगाह का
दिल काएनात-ए-इश्क़ में शाहों का शाह है
मुख़्तार-ए-कुल तमाम सफ़ेद ओ सियाह का
साबित हुआ किसी पे न जुर्म-ए-वफ़ा कभी
पर्दा खुला न इश्क़-ए-सरापा-गुनाह का
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