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अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता - यगाना चंगेज़ी कविता - Darsaal

अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता

अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता

तो भला ये राज़-ए-उल्फ़त कभी आश्कार होता

है तुनुक-मिज़ाज सय्याद कुछ अपना बस नहीं है

मैं क़फ़स को ले के उड़ता अगर इख़्तियार होता

ये ज़रा सी इक झलक ने दिल ओ जाँ को यूँ जलाया

तिरी बर्क़-ए-हुस्न से फिर कोई क्या दो-चार होता

अजी तौबा इस गरेबाँ की भला बिसात क्या थी

ये कहो कि हाथ उलझा नहीं तार-तार होता

वो न आते फ़ातिहा को ज़रा मुड़ के देख लेते

तो हुजूम-ए-'यास' इतना न सर-ए-मज़ार होता

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