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अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या - यगाना चंगेज़ी कविता - Darsaal

अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या

अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या

हवस ने शौक़ के पहलू दबाए हैं क्या क्या

न जाने सहव-ए-क़लम है कि शाहकार-ए-क़लम

बला-ए-हुस्न ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या

निगाह डाल दी जिस पर वो हो गया अंधा

नज़र ने रंग-ए-तसर्रुफ़ दिखाए हैं क्या क्या

इसी फ़रेब ने मारा कि कल है कितनी दूर

इस आज कल में अबस दिन गँवाए हैं क्या क्या

पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए

इसी ज़मीन में दरिया समाए हैं क्या क्या

गुज़र के आप से हम आप तक पहुँच तो गए

मगर ख़बर भी है कुछ फेर खाए हैं क्या क्या

बुलंद हो तो खुले तुझ पे ज़ोर पस्ती का

बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या

ख़ुशी में अपने क़दम चूम लूँ तो ज़ेबा है

वो लग़्ज़िशों पे मिरी मुस्कुराए हैं क्या क्या

ख़ुदा ही जाने 'यगाना' मैं कौन हूँ क्या हूँ

ख़ुद अपनी ज़ात पे शक दिल में आए हैं क्या क्या

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