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रंग है ऐ साक़ी-ए-सरशार क़ैसर-बाग़ में - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

रंग है ऐ साक़ी-ए-सरशार क़ैसर-बाग़ में

रंग है ऐ साक़ी-ए-सरशार क़ैसर-बाग़ में

फूल पीते हैं तिरे मय-ख़्वार क़ैसर-बाग़ में

देख कर रंगीं तिरा रुख़्सार क़ैसर-बाग़ में

गुल से बुलबुल हो गए बेज़ार क़ैसर-बाग़ में

साथ है इक ग़ैरत-ए-गुलज़ार क़ैसर-बाग़ में

बुलबुलों को दे रहे हैं ख़ार क़ैसर-बाग़ में

बातें बुलबुल को सुना शैदा-ए-रुख़ गुल को बना

कब्क को चल कर दिखा रफ़्तार क़ैसर-बाग़ में

सूरत-ए-इदरीस जन्नत से निकलते हैं कहीं

अब तो लाया ताला'-ए-बेदार क़ैसर-बाग़ में

शाहिद-ए-गुल मोतियों में लद रहे हैं आज-कल

अब्र-ए-तर रहता है गौहर-बार क़ैसर-बाग़ में

बुलबुलें गुल से ख़फ़ा हों क़ुमरियाँ शमशाद से

सैर हो चलिए जो आप ऐ यार क़ैसर-बाग़ में

किस तरह हूरों को ला कर ख़ुल्द से दिखलाइए

क्या बहार आई है अब के बार क़ैसर-बाग़ में

देख पाएँ मेरे सीने के अगर गुल-हा-ए-दाग़

बुलबुलें होंगी गले का हार क़ैसर-बाग़ में

मौसम-ए-गुल में यहीं जोश-ए-जुनूँ की है बहार

रंग ला कर आएँगे सौ बार क़ैसर-बाग़ में

ऐ सनम अल्लाह रे जल्वा तिरा हैरत-फ़ज़ा

बुत बने हैं साहिब-ए-ज़ुन्नार क़ैसर-बाग़ में

वो मरज़ खोए तबीबों की भी आँखें खुल गईं

है मसीहा नर्गिस-ए-बीमार क़ैसर-बाग़ में

ख़ुल्द में आ कर शराब-ए-ख़ुल्द से भी इज्तिनाब

जाम-ए-मय से ज़ाहिदा इंकार क़ैसर-बाग़ में

क़ामत-ए-बाला का रुत्बा है दो-बाला सर्व से

तुर्रा है सुम्बुल पे ज़ुल्फ़-ए-यार क़ैसर-बाग़ में

दौर में सुल्तान-ए-आलम की हैं ये कैफ़िय्यतें

ग़ैरत-ए-जम है हर इक मय-ख़्वार क़ैसर-बाग़ में

देख कर रू-ए-मुसफ़्फ़ा यार का हैरत हुई

आइने हैं पुश्त-बर-दीवार क़ैसर-बाग़ में

है पए अब्र-ए-बहारी ये महल्ल-ए-आबरू

आए ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार क़ैसर-बाग़ में

देख कर तेरे रुख़-ए-रंगीं को ऐ रश्क-ए-बहार

गुल हुए हैं बाग़बाँ पर बार क़ैसर-बाग़ में

जाइए वक़्त-ए-मसीहाई है ऐ रूह-ए-रवाँ

मुंतज़िर है नर्गिस-ए-बीमार क़ैसर-बाग़ में

तुझ से और गुल से हुई बहस-ए-जमाल ऐ ग़ुंचा-लब

मुझ से बुलबुल से हुई तकरार क़ैसर-बाग़ में

निकहत-ए-गुल से 'सबा' हम मस्त रहते हैं मुदाम

बादा-ए-गुल-गूँ नहीं दरकार क़ैसर-बाग़ में

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