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क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा

क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा

बे-महल पाँव न फैलाइएगा

लाख हो वस्ल का वा'दा लेकिन

वक़्त पर साफ़ निकल जाइएगा

जाएँ दम भर को तो फ़रमाते हैं

छावनी तो न कहीं छाइएगा

सर हुए इस के मुलम्मा' से न आप

ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं से ख़ता पाइएगा

न करें आप वफ़ा हम को क्या

बेवफ़ा आप ही कहलाइएगा

उठ गया दिल से दुई का पर्दा

छुप के अब आप कहाँ जाइएगा

कहकशाँ साफ़ बनेगा रस्ता

आप तौसन को जो चमकाइएगा

रंग लाएगी नज़ाकत बढ़ कर

फूल के बार से पत्ताइएगा

क्या करें वस्फ़-ए-दहन डरते हैं

मुँह में जो आएगा फ़रमाइएगा

ज़ुल्फ़ को हाथ लगाएँगे जो हम

बेड़ियाँ पावँ में पहनाइएगा

देखें रग़बत से तो कहता है वो शोख़

कोई हल्वा है कि खा जाइएगा

क्या किया इश्क़ ने क्यूँ हज़रत-ए-दिल

हम न कहते थे कि पछ्ताइएगा

आप चलते तो हैं अटखेलियों से

कोई आफ़त न कहीं लाइएगा

ऐ 'सबा' इश्क़-ए-परी-रूयाँ में

आदमिय्यत से गुज़र जाइएगा

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