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इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं

इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं

दिल का क़िस्सा तमाम करते हैं

क़हर है क़त्ल-ए-आम करते हैं

तर्क तुर्की तमाम करते हैं

ताक़-ए-अबरू से उन के दर-गुज़रे

हम यहीं से सलाम करते हैं

शैख़ उस से पनाह माँगते हैं

बरहमन राम राम करते हैं

जौहरी पर तिरे दुर-ए-दंदाँ

आब-ओ-दाना हराम करते हैं

ख़त्त-ए-क़िस्मत पढ़ा नहीं जाता

सिर्फ़ मंतिक़ तमाम करते हैं

या इलाही हलाल हों वाइ'ज़

दुख़्त-ए-रज़ हराम करते हैं

आप की मुँह लगी है दुख़्तर-ए-रज़

बातें होंटों से जाम करते हैं

चली दुनिया से हम प-ए-उक़्बा

कूच भर मक़ाम करते हैं

अपने दिल पर है इख़्तियार हमें

मुल्क का इंतिज़ाम करते हैं

क़ाबिल-ए-गुफ़्तुगू रक़ीब नहीं

आप किस से कलाम करते हैं

रात भर मेरे नाला-ए-पुर-दर्द

नींद उन की हराम करते हैं

ज़ुल्म ही अहमक़ों की मुँह-ज़ोरी

तंग ये बे-लगाम करते हैं

दिल से रंग-ए-दुई मिटाते हैं

ज़ख़्म का इल्तियाम करते हैं

ऐ 'सबा' क्यूँ किसी का दिल तोड़ें

का'बे का एहतिराम करते हैं

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