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देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव

देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव

फूल जाते हैं जवानान-ए-चमन के हाथ पाँव

जब न देखे चार दिन उस गुल-बदन के हाथ पाँव

सूख कर काँटा हुए अहल-ए-चमन के हाथ पाँव

हम वो मय-कश हैं जो होता है हमें रंज-ए-ख़ुमार

टूटते हैं साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन के हाथ पाँव

उन के मक़्तूलों की क़ब्रें इस क़दर खोदी गईं

थक के तख़्ता हो गए हर गोरकन के हाथ पाँव

आती जाती चोट भी सच ही नज़र आती नहीं

आज-कल चलते हैं क्या उस तेग़-ज़न के हाथ पाँव

ख़ाकसारी का मज़ा होता जो ऐ ख़ुसरव तुझे

आब-ए-शीरीं से धुलाता कोहकन के हाथ पाँव

हथकड़ी बेड़ी बड़ी ज़ोरों से पहनाई मुझे

ऐ जुनूँ शल हो गए अहल-ए-वतन के हाथ पाँव

काट डाला दस्त-ए-शाख़-ए-गुल को पा-ए-सर्व को

बाग़बाँ ने देख कर उस गुल-बदन के हाथ पाँव

तौसन-ए-मुश्कीं से जब उस तुर्क की तश्बीह दी

जोड़ में ठहरे न आहू-ए-ख़ुतन के हाथ पाँव

अपने गेसू-ए-रसा से यार रस्सी की तरह

बाँधता है आशिक़-ए-चाह-ए-ज़क़न के हाथ पाँव

नौजवानान-ए-चमन उस गुल से थर्राते हैं यूँ

जिस तरह काँपें किसी पीर-ए-कुहन के हाथ पाँव

शब को गर्म-ए-रक़्स होता है जो वो आतिश-मिज़ाज

शम्अ साँ जलते हैं सारे अंजुमन के हाथ पाँव

हथकड़ी बेड़ी जो मुझ मजनूँ की उतरी बा'द-ए-मर्ग

क़ब्र में टुकड़े उड़ाएँगे कफ़न के हाथ पाँव

हो गई ख़म ठोंक कर देव-ए-ख़िज़ाँ के सामने

क्या कसीले हैं जवानान-ए-चमन के हाथ पाँव

शाहिद-ए-मक़सद तुम्हें बे-वासता मिल जाएगा

ऐ 'सबा' चूमो न शैख़-ओ-बरहमन के हाथ पाँव

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