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बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी

बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी

सुब्ह सौ बार ख़रीदी गई सौ बार फिरी

बारहा क़हक़हों में तू ने उड़ाया है उसे

शम्अ' रोती तिरी महफ़िल से है सौ बार फिरी

चल बसी फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ मौसम-ए-गुल आ पहुँचा

ले मुबारक हो हवा बुलबुल-ए-गुलज़ार फिरी

एक जा भी नज़र आई न असर की सूरत

गिरती पड़ती न कहाँ आह-ए-दिल-ए-ज़ार फिरी

ज़ुल्फ़-ए-जानाँ के जो सौदे में हुआ सर-गश्ता

साए की तरह मिरे साथ शब-ए-तार फिरी

भीक मँगवाई फ़क़ीरों की तरह शाहों को

ऐसी निय्यत तिरी ऐ चर्ख़-ए-सितम-गार फिरी

ऐ 'सबा' देख लिया हम ने उसी तक सब थे

फिर गया सारा जहाँ जब नज़र-ए-यार फिरी

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