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बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर

बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर

दे दे पटका उठा उठा कर

घर में दा'वा न हुस्न का कर

यूसुफ़ से निकल के सामना कर

ज़ुल्फ़ों को न छोड़ तू बढ़ा कर

नाज़ुक है गिरेगा झोंक खा कर

बैठे जो वो शब नक़ाब उठा कर

बुझने लगी शम्अ झिलमिला कर

बरबाद न कर तू आबरू को

मानिंद-ए-हबाब सर उठा कर

उस गुल की मिज़ा ने मार डाला

काँटे की तरह सुखा सुखा कर

बे-ताबी-ए-दिल अगर दिखाऊँ

बिजली रह जाए तिलमिला कर

सफ़्फ़ाक ने बंद बंद काटा

चोटें मारीं झुका झुका कर

अल्लाह रे सोज़िश-ए-दिल ऐ यार

मारा किस आग में जला कर

पैरे कोई ख़ाक बहर-ए-ग़म में

आख़िर डूबा मैं ढब-ढबा कर

फबती कहती हैं अब्र-ए-तर के

अच्छी सूझी मुझे रुला कर

वो मस्त हैं अर्श पर टिके हाथ

नशे में गिरे जो लड़खड़ा कर

गर्द-ए-ग़म ने ज़मीं झकाई

छोड़ा मुझे ख़ाक में मिला कर

बोसे के सवाल पर वो बिगड़े

मुँह की खाई ज़बाँ हिला कर

नाला कोई बन पड़ा जो हम से

अफ़्लाक को रख दिया मिटा कर

ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ से काँपता हूँ

साक़ी मुझे जाम दे तपा कर

वो नज़्अ' में हाल सुन के रोए

काम आई ज़बाँ लड़खड़ा कर

क़िस्सा दिल से उठा दुई का

परछा हो जाए फ़ैसला कर

जब कूच किया 'सबा' अदम को

रह जाएँगे यार ख़ाक उड़ा कर

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