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बंदा अब ना-सुबूर होता है - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

बंदा अब ना-सुबूर होता है

बंदा अब ना-सुबूर होता है

अफ़्व होवे क़ुसूर होता है

वो ज़मीं पर क़दम नहीं रखते

हुस्न का क्या ग़ुरूर होता है

दौलत हुस्न के लुटाने में

ख़र्च क्या ऐ हुज़ूर होता है

सुर्मा आँखों में वो लगाते हैं

देखिए क्या फ़ुतूर होता है

हम हैं मजबूर आप हैं मुख़्तार

कहिए किस से क़ुसूर होता है

साया उस आफ़्ताब-तलअ'त का

दीदा-ए-मह का नूर होता है

ख़ाक हासिल है उस से मुर्दों को

ज़र जो सर्फ़-ए-क़ुबूर होता है

मय-कशों में मुदाम ऐ ज़ाहिद

नारा-ए-या-ग़फ़ूर होता है

वस्ल हो टालिए न बोसे पर

इस से क्या ऐ हुज़ूर होता है

फ़िक्र रखते नहीं हैं दीवाने

बाइ'स-ए-ग़म शुऊ'र होता है

परतव-ए-रुख़ से उन का जेब-ए-क़बा

दामन-ए-कोह-ए-तूर होता है

ख़ूब आशिक़ का पास करते हो

हर घड़ी दूर दूर होता है

एक ही नूर का ज़माने में

सौ तरह से ज़ुहूर होता है

मुझ को नाहक़ हलाल करते है

ख़ून ये बे-क़ुसूर होता है

कश्ती-ए-मय चली तो ऐ साक़ी

बहर-ए-ग़म से उबूर होता है

ऐ 'सबा' जब बहार आती है

हम को सौदा ज़रूर होता है

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