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ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल

ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल

सूरत-ए-नाक़ूस हैं गब्र-ओ-मुसलमाँ आज-कल

बाग़ में कहते हैं वो लाले का तख़्ता देख कर

गुल खिलाती है अजब ख़ाक-ए-शहीदाँ आज-कल

हर्फ़-ए-मतलब अपने दीवाने का भी सुन जा ज़रा

हो तुझे छुट्टी जो ऐ तिफ़्ल-ए-दबिस्ताँ आज-कल

मौसम-ए-जोश-ए-जुनूँ है जामा-ए-गुल की तरह

ख़ुद-ब-ख़ुद होते हैं टुकड़े जेब-ओ-दामाँ आज-कल

पेशतर ख़त से मज़ा था हुस्न का ऐ नौनिहाल

हो गया दाग़ी तिरा सेब-ए-ज़नख़दाँ आज-कल

याद करते हैं किसी के मुसहफ़-ए-रुख़्सार को

ताक़-ए-निस्याँ पर रखा है हम ने क़ुरआँ आज-कल

ज़ुल्फ़ें छोड़ी हैं जो उस सय्याद-ए-गुल-रुख़्सार ने

दाम में फँसते हैं मुर्ग़ान-ए-गुलिस्ताँ आज-कल

हाए वो ख़ुश-क़द पए-गुल-गश्त अब आता नहीं

नख़्ल-ए-मातम है हर इक सर्व-ए-गुलिस्ताँ आज-कल

ज़ोफ़ के हाथों हुए फ़स्ल-ए-जुनूँ में तंग हम

हो गया फाँसी हमें अपना गरेबाँ आज-कल

इन दिनों में ज़ूर होता है हमें जोश-ए-जुनूँ

भागता है छोड़ कर मजनूँ बयाबाँ आज-कल

जो हसीं है गर्द है इस बादशाह-ए-हुस्न की

रहता है परियों की झूमर में सुलैमाँ आज-कल

एँडते हैं कज-अदाई करते हैं उश्शाक़ से

बल की लेते हैं बहुत गेसू-ए-जानाँ आज-कल

गुलशन-ए-आलम मिरी नज़रों में बाग़-ए-सब्ज़ है

देखता हूँ सब्ज़ा-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ आज-कल

सामना हर रोज़ का है उस बुत-ए-सफ़्फ़ाक से

ऐ 'सबा' अल्लाह है अपना निगहबाँ आज-कल

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