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अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला

अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला

बड़ा क़ातिल बड़ा सफ़्फ़ाक निकला

सनोबर क़द-कशी में ख़ाक निकला

वो सर्व-ए-क़द चमन की नाक निकला

फ़रिश्तों को किया मात आदमी ने

क़यामत का ये मुश्त-ए-ख़ाक निकला

उड़ा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने

क़फ़स से ताइर-ए-इदराक निकला

मोहब्बत से खुला हाल-ए-ज़माना

ये दिल लौह-ए-तिलिस्म-ए-ख़ाक निकला

निकल आई फ़लक की दूर से रूह

भँवर से ख़ूब ये तैराक निकला

वो पज़मुर्दा था फ़स्ल-ए-गुल जो आई

चमन से सूरत-ए-ख़ाशाक निकला

शिकार-अफ़्गन मैं दिल को जानता था

ग़ज़ाल-ए-बस्ता-ए-फ़ितराक निकला

मरे हम आरज़ू उन की बर आए

हमारा हौसला क्या ख़ाक निकला

जुनूँ में बाग़-ए-आलम को जो देखा

अजब सहरा-ए-वहशत-नाक निकला

निकलती है बदन से जिस तरह रूह

तिरे घर से मैं यूँ ग़मनाक निकला

तुम्हारे क़द से कुछ कम सर्व ठहरा

सनोबर तो बहुत कावाक निकला

हमारी सादा-लौही काम आई

हिसाब-ए-रोज़-ए-महशर पाक निकला

तरारा फिरते ही पहुँचा अदम में

समंद-ए-उम्र क्या चालाक निकला

भरे लड़कों ने दामन पत्थरों से

जहाँ तेरा गरेबाँ चाक निकला

मिटाया दौर-ए-साक़ी मोहतसिब ने

अदू जमशेद का ज़ह्हाक निकला

'सबा' हम हश्र को मुजरिम जो निकले

शफ़ाअत को शह-ए-लौलाक निकला

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