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आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना - वज़ीर अली सबा लखनवी कविता - Darsaal

आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना

आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना

ख़ूब आई बहार क्या कहना

मेहंदी मल कर है चोट मर्जां पर

हाथ लाला-निगार क्या कहना

मुझ से आशिक़ के और यूँ नफ़रीं

वाह शाबाश यार क्या कहना

बर्क़ भी दरकिनार रह जाए

हाँ दिल-ए-बे-क़रार क्या कहना

लाख बार इम्तिहान-ए-इश्क़ किया

न कहा एक बार क्या कहना

बहस-ए-गिर्या में अब्र बोल गया

दीदा-ए-अश्क-बार क्या कहना

मैं तो रोता हूँ आप हँसते हैं

यही होता है यार क्या कहना

सख़्ती-ए-इश्क़ झेल ले ऐ दिल

वाह रे बुर्दबार क्या कहना

मर गए हम मगर न रहम आया

वही तेवर हैं यार क्या कहना

ख़ार ख़ार-ए-ग़म-ए-दिल-ए-पुर-दर्द

चीख़ कर ऐ हज़ार क्या कहना

कह तो ललकार लें रक़ीबों को

बात रख ली निगार क्या कहना

जोश-ए-उल्फ़त में और ज़ब्त ऐ दिल

जब्र पर इख़्तियार क्या कहना

यूँ तो जो गुल है ख़ूब है लेकिन

तेरा ऐ गुल-एज़ार क्या कहना

ऐ 'सबा' दावा-ए-अनल-हक़ है

ख़ूब सोचे हो यार क्या कहना

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