वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें
तवील रहना भी लगता है मुख़्तसर रहना
Rahat Indori
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ख़ुद से हुआ जुदा तो मिला मर्तबा तुझे
दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था
न आँखें ही झपकता है न कोई बात करता है
अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने
दीवार-ए-गिर्या
भूत
वो दिन गए कि छुप के सर-ए-बाम आएँगे
कोह-ए-निदा
ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे
कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया
अजनबी