लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
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इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ
अंकबूत
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
बादल बरस के खुल गया रुत मेहरबाँ हुई
चलो अपनी भी जानिब अब चलें हम
अब तो आराम करें सोचती आँखें मेरी