कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात
लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा तुझे
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उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की
मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के
सुनो उजड़ा मकाँ इक बद-दुआ है
कितनी बार बुलाया उस को
सारी उम्र गँवा दी हम ने
जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
तुम जो आते हो
टीन का डिब्बा
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं