जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
मैं रहगुज़र था मुझे रौंद कर ज़माना गया
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धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें
सिखा दिया है ज़माने ने बे-बसर रहना
आवेज़िश
कोह-ए-निदा
तुम्हें ख़बर भी न मिली और हम शिकस्ता-हाल
जब आँख खुली मेरी
सहर ने आ कर मुझे सुलाया तो मैं ने जाना
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
न आँखें ही झपकता है न कोई बात करता है